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सोमवार, 14 मई 2012

कार्टून-कार्टून

मन्दबुद्धिपना
साठ साल से भी अधिक समय पहले कार्टूनिस्ट शंकर द्वारा बनाया गया कार्टून जिस पर न नेहरू को कभी आपत्ति हुई और न ही अम्बेडकर को। यह कार्टून सन्  २००६ से पुस्तक में है पर अब यह समझ में आया कि इस पर आपत्ति उठाकर दुकानदारी कुछ जमायी जा सकती है। सो भाई लोग सक्रिय हो गये। लगे हाथ २ सलाहकारों ने सलाहकारी भी छोड़ दी...बहस भी जारी है।
कार्टूनिस्ट शंकर

कार्टूनिस्ट चन्दर
कार्टूनिस्ट सुरेन्द्र


कार्टूनिस्ट सुधीरनाथ
कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य


कार्टूनिस्ट हाडा

कार्टूनिस्ट काक

कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य
कार्टूनिस्ट काक
कार्टूनिस्ट अभिषेक
कार्टूनिस्ट लहरी


































स्वर्णकाल
-कार्टूनों को बर्दाश्त करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है, पूरी दुनिया में हो रही क्रांतियों में आज कार्टूनिस्ट अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। आज कार्टूनिस्ट सिर्फ किसी मीडिया हाउस के कर्मचारी नहीं बल्कि क्रांति और परिवर्तन के वाहक के रूप में सामने आ रहे हैं और इससे ज्यादा सम्मान क्या होगा कि अक्सर हमारी संसद में कार्टूनों पर बहसें होने लगी हैं। 
यकीन मानिए, मैं तो इसे कार्टून की बढ़ती ताकत के रूप में देखता हूँ। इस आधार पर देखा जाये तो शंकर के समय की अपेक्षा कार्टून्स आज ज्यादा असरदार हैं और इसकी वज़ह है भारतीयों में लगातार घट रही सहनशीलता। आज लोग अपने विचारों से अलग कुछ सुनना ही नहीं चाहते। पत्रकारिता उतना खुल कर बात नहीं कर सकती, उसकी अपनी सीमाएं हैं। पर कार्टूनिंग में सीमाएं उतनी स्पष्ट नही हैं और उन्हें तोड़ना भी अपेक्षाकृत कहीं आसान है। लोकतांत्रिक तानाशाही और आम जन की आवाज़ के दमन का यह दौर सारी दुनिया के कार्टूनिस्टों के लिए स्वर्ण काल है।
• कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी /फ़ेसबुक में
बिलांद
कानून का हाथ एक बिलांद लम्बा कर दो!
-सुहास पल्सीकर (एनसीईआरटी सलाहकार जिन्होंने कार्टून मुद्दे पर अपने पद से इस्तीफा दे दियाके कार्यालय में कथित तौर पर पुणे में हमला किया गया है
कितना शर्मनाक है यह!
• कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य 
खेद
-रोज कई नेताओं पर कार्टून बनाता हूँ, पता नहीं आगे चलकर इनमें से कौन देवी/देवता/मसीहा घोषित हो जाए और पता नहीं पच्चीस- पचास साल बाद किसी की भावनाओं को अचानक ठेस पहुँचने लग जाए। लिहाजा अग्रिम खेद व्यक्त किये देता हूँ। पता नहीं तब तक जिन्दा रहें ना रहें!!
-एनसीईआरटी की उस किताब में और भी कई कार्टून हैं...सारे नेता उन्हें भी समझने के प्रयास कर रहे हैं.
• कार्टूनिस्ट कीर्तीश भट्ट
आस्था 
-हजारों किमी दूर डेनमार्क में पैगम्बर का कार्टून बनता है तो यहाँ भारत में भावनाएं आहत हो जाती हैं, आग लग जाती है। सरकार माफ़ी माँगती है, मरहम लगाती है…60 साल पहले बनाए हुए कार्टून से भावनाएं आहत हो जाती हैं…। सरकार माफ़ी माँगती है, तड़ातड़ दो इस्तीफ़े भी हो जाते हैं…संदेश साफ़ है - "आस्थाओं" और "पूजनीयों" के साथ खिलवाड़ किया, तो तुम्हारी खैर नहीं…
क्या कहा? राम मन्दिर और रामसेतु?
अरे, आगे बढ़ो बाबा…!!! दब्बुओं, डरपोकों, लतखोरों और असंगठित वोट बैंकों की भी भला कोई "आस्था" होती है? बात करते हो…! चलो निकलो यहाँ से।
• सुरेश चिपलूणकर 

संसद में कार्टून
-चिन्ता की बात यह है कि फ़िलहाल जगह-जगह से कार्टून हटाये जा रहे हैं अगली बारी कार्टूनिस्टों की..अब तो कुछ करना चाहिए। यहां से भी ‘कार्टून’ हट गये तो...?
• कार्टूनिस्ट चन्दर
वही
-साला...६० साल पुराना एक कार्टून पूरी संसद को.......बना देता है!  
• त्र्यम्बक शर्मा
-बढिया खबर है.. शंकर के कार्टून पर राजनीति का विरोध कार्टून जगत की और से होना ही चाहिए...लगो पीछे...
•  कार्टूनिस्ट सुधीर गोस्वामी
शपथ
-सारे कार्टूनिस्टों से शपथ पत्र लिया जायेगा कि वोह केवल नेताओं और सरकार की प्रशंसा करने वाले कार्टून ही बनायेगें| उलंघना करने वाले कार्टूनिस्टों को जेल में बंद कर दिया जायेगा और स्वर्गवासी हो चुके कार्टूनिस्टों की मिटटी खराब की जायेगी।
-कार्टून से ऐसा तो नहीं लगता कि किसी विशेष समुदाय की भावना को ठेस पहुंचायी गयी है। इसमें तो आंबेडकर साहिब की महिमा और अच्छा व्यक्तित्व दिखाया गया है। अगर महान कार्टूनिस्ट शंकर जी का १९४९ में बना कार्टून ठीक था तो अब इस पर विवाद बहुत गलत है। परन्तु गन्दी राजनीती को क्या कहें? 
• सुभाष मेहता
भारत छोड़ो
-नेताओं का अगला नारा- कार्टूनिस्टो भारत छोड़ों....
• प्रकाश भावसार 
शौक
-‎1949 में बने कार्टूनों पर अब विवाद...इसे कहते हैं 'बिज़ी विदाउट बिज़नेस' वाला शौक़!
• इष्टदेव सांकृत्यायन
कुछ और
ये है वो कार्टून जिसनें संसद को ठप्प कर रखा है..! आपकी क्या राय है? 2006 में छप गया था ये कार्टून किन्तु अभी एक महिनें पहले इसकी जानकारी एनसीईआरटी को दी गयी थी, एक महिनें में कुछ नहीं किया गया! मुझे ऐसा क्यूं लगता है की कहीं कुछ और पक रहा है? वैसे इस कार्टून में ये जो भी नेता जी कोड़ा मार रहे हैं वो किसको पड़ रहा है? क्योंकि तांगे में तो घोड़े को ही बेंत मारी जाती है..!!
• सचिन खरे

अप्रश्नेय कोई नहीं है- गांधी, नेहरू, अम्बेडकर, मार्क्स

जिस किताब में छपे कार्टून पर विवाद हो रहा है, उसमें कुल बत्तीस कार्टून हैं। इसके अतिरिक्त दो एनिमेटेड बाल चरित्र भी हैं - उन्नी और मुन्नी। मैं सबसे पहले बड़े ही मशीनी ढंग से इनमें से कुछ कार्टूनों का कच्चा चिट्ठा आपके सामने प्रस्तुत करूँगा, फिर अंत में थोड़ी सी अपनी बात।
# नेहरु पर सबसे ज्यादा (पन्द्रह) कार्टून हैं। ये स्वाभाविक है क्योंकि किताब है : भारत का संविधान : सिद्धांत और व्यवहार। # एक राज्यपालों की नियुक्ति पर है। उसमें नेहरू जी किक मारकर एक नेता को राजभवन में पहुंचा रहे हैं। # एक भाषा विवाद पर है, उसमें राजर्षि टंडन आदि चार नेता एक अहिन्दी भाषी पर बैठे सवारी कर रहे हैं। # एक में संसद साहूकार की तरह बैठी है और नेहरू, प्रसाद, मौलाना आज़ाद, जगजीवन राम, मोरारजी देसाई आदि भिखारी की तरह लाइन लगाकर खड़े हैं। यह विभिन्न मंत्रालयों को धन आवंटित करने की एकमेव ताकत संसद के पास होने पर व्यंग्य है। # एक में वयस्क मताधिकार का हाथी है जिसे दुबले पतले नेहरू खींचने की असफल कोशिश कर रहे हैं। # एक में नोटों की बारिश हो रही है या तूफ़ान सा आ रहा है जिसमें नेहरू, मौलाना आजाद, मोरारजी आदि नेता, एक सरदार बलदेव सिंह, एक अन्य सरदार, एक शायद पन्त एक जगजीवन राम और एक और प्रमुख नेता जो मैं भूल रहा हूँ कौन - तैर रहे हैं। टैगलाइन है - इलेक्शन इन द एयर।
# एक में नेहरू हैरान परेशान म्यूजिक कंडक्टर बने दो ओर गर्दन एक साथ घुमा रहे हैं। एक ओर जन-गण-मन बजा रहे आंबेडकर, मौलाना, पन्त, शायद मेनन, और एक वही चरित्र जो पिछले कार्टून में भी मैं पहचान नहीं पाया, हैं। ये लोग ट्रम्पेट, वायलिन आदि बजा रहे हैं जबकि दूसरी ओर वंदे मातरम गा रहे दक्षिणपंथी समूह के लोग हैं। श्यामाप्रसाद मुखर्जी बजाने वालों की मंडली से खिसककर गाने वालों की मंडली में जा रहे हैं। # एक में चार राजनीतिज्ञ नेहरु, पटेल, प्रसाद और एक और नेता भीमकाय कॉंग्रेस का प्रतिनिधित्त्व करते हुए एक लिलिपुटनुमा विपक्ष को घेरकर खड़े हैं। यह चुनाव और प्रतिनिधित्त्व की दिक्कतें बताने वाले अध्याय में है। # ऊपरवाले कार्टून के ठीक उलट है ये कार्टून जिसमें नेहरु को कुछ भीमकाय पहलवाननुमा लोगों ने घेर रखा है, लग रहा है ये अखाड़ा है और नेहरु गिरे पड़े हैं। घेरे खड़े लोगों के नाम हैं - विशाल आंध्रा, महा गुजरात, संयुक्त कर्नाटक, बृहनमहाराष्ट्र। ये कार्टून नए राज्यों के निर्माण के लिए लगी होड़ के समय का है।
### कवर पर बना कार्टून सबसे तीखा है। आश्चर्य है इससे किसी की भावनाएं आहत क्यों नहीं हुईं। यह आर. के. लक्ष्मण का है। इसमें उनका कॉमन मैन सो रहा है, दीवार पर तस्वीरें टंगी हैं - नेहरु, शास्त्री, मोरारजी, इंदिरा, चरण सिंह, वी.पी.सिंह, चंद्रशेखर, राव, अटल बिहारी और देवैगोडा... और टीवी से आवाजें आ रही हैं - "unity, democracy, secularism, equality, industrial growth, economic progress, trade, foreign collaboration, export increase, ...we have passenger cars, computers, mobile phones, pagers etc... thus there has been spectacular progress... and now we are determined to remove poverty, provide drinking water, shelter, food, schools, hospitals...
कार्टून छोड़िये, इस किताब में उन्नी और मुन्नी जो सवाल पूछते हैं, वे किसी को भी परेशान करने के लिए काफी हैं। वे एकबारगी तो संविधान की संप्रभुता को चुनौती देते तक प्रतीत होते हैं। मसलन, उन्नी का ये सवाल - क्या यह संविधान उधार का था? हम ऐसा संविधान क्यों नहीं बना सके जिसमें कहीं से कुछ भी उधार न लिया गया हो? या ये सवाल (किसकी भावनाएं आहत करेगा आप सोचें) - मुझे समझ में नहीं आता कि खिलाड़ी, कलाकार और वैज्ञानिकों को मनोनीत करने का प्रावधान क्यों है? वे किसका प्रतिनिधित्त्व करते हैं? और क्या वे वास्तव में राज्यसभा की कार्यवाही में कुछ खास योगदान दे पाते हैं? या मुन्नी का ये सवाल देखें - सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले बदलने की इजाज़त क्यों दी गयी है? क्या ऐसा यह मानकर किया गया है कि अदालत से भी चूक हो सकती है? एक जगह सरकार की शक्ति और उस पर अंकुश के प्रावधान पढ़कर उन्नी पूछता है - ओह! तो पहले आप एक राक्षस बनाएँ फिर खुद को उससे बचाने की चिंता करने लगे। मैं तो यही कहूँगा कि फिर इस राक्षस जैसी सरकार को बनाया ही क्यों जाए?
किताब में अनेक असुविधाजनक तथ्य शामिल किये गए हैं। उदाहरणार्थ, किताब में बहुदलीय प्रणाली को समझाते हुए ये आंकड़े सहित उदाहरण दिया गया है कि चौरासी में कॉंग्रेस को अड़तालीस फीसदी मत मिलने के बावजूद अस्सी फीसदी सीटें मिलीं। इनमें से हर सवाल से टकराते हुए किताब उनका तार्किक कारण, ज़रूरत और संगती समझाती है। यानी किताब अपने खिलाफ उठ सकने वाली हर असहमति या आशंका को जगह देना लोकतंत्र का तकाजा मानती है। वह उनसे कतराती नहीं, उन्हें दरी के नीचे छिपाती नहीं, बल्कि बच्चों को उन पर विचार करने और उस आशंका का यथासंभव तार्किक समाधान करने की कोशिश करती है। उदाहरण के लिए जिस कार्टून पर विवाद है, वह संविधान निर्माण में लगने वाली देरी के सन्दर्भ में है। किताब में इस पर पूरे तीन पेज खर्च किये गए हैं, विस्तार से समझाया गया है कि संविधान सभा में सभी वर्गों और विचारधाराओं के लोगों को शामिल किया गया। उनके बीच हर मुद्दे पर गहराई से चर्चा हुई। संविधान सभा की विवेकपूर्ण बहसें हमारे लिए गर्व का विषय हैं, किताब ये बताती है। मानवाधिकार वाले अध्याय में सोमनाथ लाहिड़ी को (चित्र सहित) उद्धृत किया गया है कि अनेक मौलिक अधिकार एक सिपाही के दृष्टिकोण से बनाए गए हैं यानी अधिकार कम हैं, उन पर प्रतिबन्ध ज्यादा हैं। सरदार हुकुम सिंह को (चित्र सहित) उद्धृत करते हुए अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सवाल उठाया गया है। किताब इन सब बहसों को छूती है।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि जहाँ देर के कारण गिनाए गए हैं, वहाँ ये रेखांकित किया गया है कि संविधान में केवल एक ही प्रावधान था जो बिना वाद-विवाद सर्वसम्मति से पास हो गया - सार्वभौम मताधिकार। किताब में इस पर टिप्पणी है – “इस सभा की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा का इससे बढ़िया व्यावहारिक रूप कुछ और नहीं हो सकता था।”
बच्चों को उपदेशों की खुराक नहीं चाहिए, उन्हें सहभागिता की चुनौती चाहिए। उपदेशों का खोखलापन हर बच्चा जानता है। यह और दो हज़ार पांच में बनी अन्य किताबें बच्चों को नियम/ सूत्र/ आंकड़े/ तथ्य रटाना नहीं चाहतीं। प्रसंगवश पाठ्यचर्या दो हज़ार पांच की पृष्ठभूमि में यशपाल कमेटी की रिपोर्ट थी। बच्चे आत्महत्या कर रहे थे, उनका बस्ता भारी होता जा रहा था, पढ़ाई उनके लिए सूचनाओं का भण्डार हो गयी थी, जिसे उन्हें रटना और उगल देना था। ऐसे में इस तरह के कार्टून और सवाल एक नयी बयार लेकर आये। ज्ञान एक अनवरत प्रक्रिया है, यदि ज्ञान कोई पोटली में भरी चीज़ है जिसे बच्चे को सिर्फ ‘पाना’ है तो पिछली पीढ़ी का ज्ञान अगली पीढ़ी की सीमा बन जाएगा। किताब बच्चे को अंतिम सत्य की तरह नहीं मिलनी चाहिये, उसे उससे पार जाने, नए क्षितिज छूने की आकांक्षा मिलनी चाहिए।
किताब अप्रश्नेय नहीं है और न ही कोई महापुरुष। कोई भी - गांधी, नेहरु, अम्बेडकर, मार्क्स... अगर कोई  भी असुविधाजनक तथ्य छुपाएंगे तो कल जब वह जानेगा तो इस धोखे को महसूस कर ज़रूर प्रतिपक्षी विचार के साथ जाएगा। उसे सवालों का सामना करना और अपनी समझ/ विवेक से फैसला लेने दीजिए। यह किताब बच्चों को किताब के पार सोचने के लिए लगातार सवाल देती चलती है, उदाहरणार्थ यह सवाल - (क्या आप इससे पहले इस सवाल की कल्पना भी कर सकते थे?) क्या आप मानते हैं कि निम्न परिस्थितियाँ स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंधों की मांग करती हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दें – क* शहर में साम्प्रदायिक दंगों के बाद लोग शान्ति मार्च के लिए एकत्र हुए हैं। ख* दलितों को मंदिर प्रवेश की मनाही है। मंदिर में जबरदस्ती प्रवेश के लिए एक जुलूस का आयोजन किया जा रहा है। ग* सैंकड़ों आदिवासियों ने अपने परम्परागत अस्त्रों तीर-कमान और कुल्हाड़ी के साथ सड़क जाम कर रखा है। वे मांग कर रहे हैं कि एक उद्योग के लिए अधिग्रहीत खाली जमीं उन्हें लौटाई जाए। घ* किसी जाती की पंचायत की बैठक यह तय करने के लिए बुलाई गयी है कि जाती से बाहर विवाह करने के लिए एक नवदंपत्ति को क्या दंड दिया जाए।
अब आखिर में, जिन्हें लगता है कि बच्चे का बचपन बचाए रखना सबसे ज़रूरी है और वो कहीं दूषित न हो जाए, उन्हें छान्दोग्य उपनिषद का रैक्व आख्यान पढ़ना चाहिए। मेरी विनम्र राय में बच्चे को यथार्थ से दूर रखकर हम सामाजिक भेदों से बेपरवाह, मिथकीय राष्ट्रवाद से बज्बजाई, संवादहीनता के टापू पर बैठी आत्मकेंद्रित पीढ़ी ही तैयार करेंगे। तब, कहीं देर न हो जाए।
- हिमांशु पंड्या

(जानकारी हेतु, मैं हिन्दी की पाठ्यक्रम निर्माण समिति का सदस्य रहा हूँ।)    
Himanshu Pandya द्वारा 12 मई 2012 को 13:17 बजे · पर
 


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